पत्रकारिता का बदलता वक्त और जनता की बढ़ती उम्मीदें

मुकेश अवस्थी। क्या वर्तमान हालत लोकतांत्रिक व्यवस्था और स्वच्छ पत्रकारिता पर विश्वास के लायक है? कुछ हद तक नही तो सत्ताधीशों के लिये उनके अनुसार व्यवस्था और पत्रकारिता दोनों सही है। लेकिन 2014 के बाद से पत्रकारिता पर दबाव भी देखने को मिला है जो 1990 के दशक की पत्रकारिता और उससे पहले की और उससे पहले की पत्रकारिता की याद जरूर दिलाता है। कहा जा रहा है कि अधिकांश मीडिया घराने सरकार की जी हुजूरी कर पत्रकारिता नही अब स्वयं फ़ायदा देख रहे है, इसके लिये उन्होंने नामचीन पत्रकारों को भी चलता कर दिया है।
मोदी युग मे पत्रकारिता स्वच्छ हो न हो राजनीति जरूर स्वच्छ दिखना चाहिए वह भी सत्ताधारी दल की , अन्ना आंदोलन याद होगा , अन्ना आंदोलन के दिनों में जिस तरह से देश की प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने आंदोलन की रिपोर्टिंग पल पल की , हर बात को सरकार तक पहुचाया, अब देश की जीडीपी , बेरोजगारी, और किसान आंदोलन जैसे गम्भीर मुद्दों को सरकार तक पहुचाने के बजाय सत्ता पक्ष के नेताओ और मंत्रियों के इंटरव्यू जरूर दिखाए जा रहे है वह भी सत्ता के गुणगान के साथ, इंटरव्यू में सवाल भी ऐसे नही दागे जा रहे जो लोकतंत्र को तैयार करने वाली जनता के हितकारी हो । सत्ताधारी दल और पीएम मोदी ने राममंदिर , 370 , तीन तलाक , सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कई ऐतिहासिक फैसले लिये जो सवर्ण अक्षरों से लिखे जायेगे, लेकिन इनके अलावा कई जरूरती मुद्दे भी है जिन पर या तो सरकार ध्यान नही दे रही या मध्यस्थता की भूमिका निभाने वाले मीडिया ने भी सरकार को जो पसंद है वही बात करेंगे वाला गीत आत्मसात कर लिया है। बता दे कि राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी , अजित अंजुम, अभिसार शर्मा सहित अन्य को सरकार के इशारे पर मीडिया घरानों ने बाहर कर दिया, क्योकि वे सत्ता को सच ओर जनता की बात बताते थे। रवीश कुमार ने भी आईना दिखाने की कोशिश की , उन्हें भी चपेटने की कोशिश हुई लेकिन ब्रांड उनका था सो वे बाहर नही हो पाए , उधर बात करे पूर्व की पत्रकारिता की तो यह 100 टका सच है कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता , इंदिरा गांधी, राजीव गांधी सहित अन्य पीएम रहे इन्होंने देश की पत्रकारिता को चपेटने की नही बल्कि खुद को सुधारने और आमलोगों की आवाज़ को सुनकर निर्णय लेने का काम किया, मोदी जी भी कर रहे है। लेकिन अपने तरीके से , हम अब सम्पन्न हो रहे है विश्व की सबसे ऐतिहासिक महत्व की संसद को अब मियूजियम में बदलने के लिये नई संसद बना रहे है वो भी अरबो खर्च करके , क्या इस पैसे से आमजन के हित के निर्णय नही लिये जा सकते , इस बात की आवाज़ उठाने की उम्मीद देश के लोग मीडिया से लगाये बैठे

थे लेकिन आवाज़ तो दूर किसी को खांसी तक नही आई। उधर देश के किसान किसान बिल को वापिस करवाने दिल्ली की बार्डर पर डटे है, लेकिन मीडिया का जो रोल अन्ना हजारे के आंदोलन के समय दिखाई देता था वो इस आंदोलन में नही दिख रहा, हां कुछ न्यूज़ चैनलों ने जरूर अब मध्यस्थता की है कृषि मंत्री और किसान नेताओ के बीच बैठकर बात करवाने की पैरवी भी की है। लेकिन जिस तरफ की मैदानी रिपोर्टिंग की उम्मीद किसानों सहित देश के राज्यो में बैठे लोकतंत्र के मजदूर लगाए बेठे थे , मीडिया उस ओर खरा नही उतरा। ये भी खबरें उठाई गई कि किसान आंदोलन विदेशी फंडिंग से हो रहा है , किसानों को भड़काया जा रहा है , खालिस्तान की मांग करने वाले किसान के रूप में आंदोलन कर रहे है बगैरह बगैरह , सवाल ये उठा कि सरकार ने जो आरोप लगाए उनको मीडिया ने डिबेट में शामिल किया ,मीडिया पैनल से घण्टो बहस हुई , लेकिन जिन किसानों को मीडिया से उम्मीद थी कि मीडिया उनकी बात को उनकी जमीनी परेशानियों को सरकार तक पहुचाये, सरकार उनकी परेशानियों को समझकर अपनी बात रखे, लेकिन ऐसा हुआ लेकिन जिस हद तक होना था वैसा नही हुआ। अब बात की जाए आम लोगों के भरोसे की , भरोसा सरकार और पत्रकार दोनों पर करना होता है, सरकार सुनती और पत्रकार सुनाता है, लेकिन उधोगिक घराने यदि मीडिया को कारपोरेट मीडिया बना दे तो क्या कारपोरेट घराने सरकार के खिलाफ जाकर वास्तवित खबरे पेश करेंगे, चापलूसी जरूर सामने दिखाएंगे सच नही , देश मे अब अंबानी घराना भी मीडिया में है तो ज़ी न्यूज़ के सुभाष चंद्र खुद सत्ताधारी दल के राज्यसभा सांसद है। उधर प्रिंट मीडिया सहित राज्यो से चलने वाले मीडिया संस्थान भी उधोग के साथ साथ रेत के कारोबार में करोड़ो कमाने उतरे है, अब सवाल है कि यदि मीडिया को भी सरकार और उधोगिक घराने संचालित करेगे तो भृष्टाचार और जमीनी सच्चाई की जानकारी सत्ता और जिम्मेदारो तक कैसे पहुचेगी । पत्रकारिता का बदलता वक्त और जनता की बढ़ती उम्मीदेंबहरहाल पीएम मोदी जी को देश पसन्द करता है , उन पर विस्वाव अटूट करता है। लेकिन अब देश के मजबूत पीएम नरेंद्र मोदी को चाहिए कि जिस दृणता के साथ नई संसद के पिलर मजबूर और गहरे बनेंगे वैसे ही अब लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को भी फिर से उतने की मजबूत बनाने के लिये कदम उठाए , तो देश की जनता फिर से पत्रकारिता पर भरोसा करने लगेगी । @ मुकेश अवस्थी