आदिवासी योद्धा जो बना इंडियन रॉबिनहुड, अंग्रेजो को लूट, गरीबो की मिटाता था भूख!
ये भील योद्धा था इंडियन रॉबिनहुड, अंग्रेजों को लूट मिटाता था गरीबों की भूख!
उनकी वीरता और अदम्य साहस की बदौलत तात्या टोपे ने प्रभावित होकर टंट्या को गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। अंग्रेजों के शोषण तथा विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ उठ खड़े हुए, देखते ही देखते वे गरीब आदिवासियों के मसीहा बनकर उभरे। वे अंग्रेजों को लूटकर गरीबों की भूख मिटाते थे।
हम बात कर रहे है इंडियन रॉबिनहुड के नाम से पहचाने जाने वाले टंट्या भील की। आज देश की आजादी के जननायक और आदिवासियों के हीरो टंट्या मामा भील की पुण्यतिथि है। इस मौके पर 4 दिसंबर को स्थानीय अवकाश घोषित किया गया है। उन्होंने गरीबी-अमीरी का भेद हटाने के लिए हर स्तर पर प्रयास किए, जिससे वे छोटे-बड़े सभी के मामा के रूप में भी जाने जाने लगे। मामा संबोधन इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रत्येक भील आज भी अपने आपको मामा कहलाने में गौरव का अनुभव करता है।
विद्रोही तेवर से मिली थी पहचान
उनके विद्रोही तेवर से कम समय में ही बड़ी पहचान हासिल आजादी के पहले अंग्रेज हमारे देश में अंग्रेजों का साम्राज्य था और गरीब आदिवासियों भारत में अंग्रेजी शासन के खिलाफ आदिवासी लोगों के विद्रोह पर अभी तक बहुत कम लिखा गया है। इस महत्वपूर्ण कमी के कारण भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक शून्यता जैसी दिखती है।
संस्कृति को बाहरी प्रभाव से बचाने की थी चिन्ता
इस शून्यता को भरने के लिये हमें भारत भर में व्यापक रूप से फैले उन जनजातीय समुदायों के इतिहास को नजदीक से देखना होगा जिन्होंने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। आदिवासियों के विद्रोहों की शुरूआत प्लासी युद्ध (1757) के ठीक बाद ही शुरू हो गई थी और यह संघर्ष बीसवीं सदी की शुरूआत तक चलता रहा। अपने सीमित साधनों से वे लम्बे समय तक संघर्ष कर पाए। क्योंकि, वनांचल में गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का उन्होंने उपयोग किया। सामाजिक रूप से उनमें आपस में एकता थी और अपनी संस्कृति को बाहरी प्रभाव से बचाने की उन्हें चिन्ता भी थी। इन बातों ने उनमें एकजुटता पैदा की और वे शोषण तथा विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ उठ खड़े हुए।
खंडवा में लिया था जन्म…
टंट्या भील का जन्म तत्कालीन सीपी प्रांत के पूर्व निमाड़ (खंडवा) जिले की पंधाना तहसील के बडदा गांव में सन 1842 में हुआ था। टंट्या का शब्दार्थ समझें तो इसका अर्थ है झगड़ा। टंट्या के पिता माऊ सिंग ने बचपन में नवगजा पीर के दहलीज पर अपनी पत्नी की कसम लेकर कहा था कि उनका बेटा अपनी भील जाति की बहन, बेटियों, बहुओं के अपमान का बदला अवश्य लेगा। नवगजा पीर मुसलमानों के साथ-साथ भीलों के भी इष्ट देवता थे। आम मान्यता है कि उनकी शहादत 4 दिसम्बर 1889 को हुई। फांसी के बाद टंट्या के शव को इंदौर के निकट खण्डवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेल्वे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया गया था। वहां पर बनी हुई एक समाधि स्थल पर लकड़ी के पुतलों को टंट्या मामा की समाधि माना जाता है। आज भी सभी रेल चालक पातालपानी पर टंटया मामा को सलामी देने कुछ क्षण के लिये रेल को रोकते हैं।
फिल्म बनाई तो ब्रिटिश लाइब्रेरी की ली मदद
मध्य प्रदेश के हीरो टंट्या मामा के जीवन पर आधारित फिल्म टंट्या भील भी बनाई जा चुकी है। फिल्म का लेखन, निर्देशन प्रदेश के मुकेश चौकसे ने किया। साथ ही फिल्म में टंट्या भील का किरदार भी मुकेश चौकसे ने निभाया है। अपने ही देश में बहादुर टंट्या मामा की जानकारी नहीं मिली तो फिल्म के लेखक ने लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी से टंट्या भील के बारे में जानकारी मंगाई। इसके बाद फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम करना शुरू किया।
फिल्म में टंट्या मामा का अंग्रेजों से लोहा लेना, लूटपाट करना और उस धन को गरीबों में बांट देना, इसके अलावा उनके जेल में गुजारे दिनों को दिखाया गया है।
लक्ष्मीबाई से ली प्रेरणा
इस पूरी घटना के बाद टंट्या भील, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से प्रेरणा लेकर अन्याय का विरोध करते और गरीबों की मदद करते हैं। इसके लिए लूटपाट भी करते हैं लेकिन पूरा धन गरीबों में बांट देते हैं। टंट्या मामा के कारनामों के चलते अंग्रेज ही उन्हें रॉबिन हुड का नाम देते हैं। इस फिल्म में टंट्या भील के गुरुजी का किरदार सुप्रसिद्ध अभिनेता कादर खान ने निभाया।