किसान आंदोलन- निर्णय से पहले छकाने की साज़िश

निर्णय से पहले छकाने की साजिश

देश के आंदोलनरत किसानों के सब्र की परीक्षा ली जा रही है. देश के किसान दस दिन से कड़कड़ाती सर्दी में दिल्ली के बाहर डेरा डालकर सत्याग्रह कर रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार वार्ता को लंबा खींचकर आंदोलन को कमजोर करने पर आमादा है अन्यथा किसानों को ‘ हां ‘ या ‘ न ‘ कहने में कितनी देर लगती है ? किसानों से वार्ता का नया और छठवें दौर अब 9 दिसंबर को होगा .ये दौर भी निर्णायक होगा या नहीं कहना कठिन है .
नए किसान कानूनों को लेकर देश के किसानों के आंदोलन को दस दिन हो चुके हैं ,लेकिन सरकार वार्ताओं के सिलसिले को लंबा खींचने में लगी है जबकि किसान संगठनों की मांगें स्पष्ट हैं. यदि सरकार की नियत ठीक होती तो बातचीत को इतना लंबा खींचने की जरूरत ही न होती. मुझे याद है कि आज से कोई तीन दशक पहले शायद 1988 में हुए किसान आंदोलन के समय भी तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सातवें दिन किसानों की तमाम मांगों को मान लिया था .उस समय किसानों के नेता महेंद्र सिंह टिकैत थे ,आज किसान नेताओं की संख्या 40 है लेकिन सब एक हैं .

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राकेश अचल , वरिष्ठ पत्रकार व जानेमाने कवि।


किसान आंदोलन अब आरपार का फैसला करने के मूड में दिखाई दे रहा है. किसान लगातार अपना सब्र बनाये हुए हैं ये एक काबिले तारीफ़ बात है अन्यथा इतने लम्बे समय में किसी भी आंदोलन के साथ सत्ता प्रतिष्ठान भीतरघात करने में कामयाब हो सकता था .किसान केंद्र सरकार की और से बातचीत की टेबिल पर हर बार परोसी जा रही जानकारी को गौर से सुन और समझ रहे हैं लेकिन उन्हें संतोष नहीं हो रहा है .सरकार एक और किसानों से बातचीत कर रही है और दूसरी और उन्हें आतंकित करने के लिए दिल्ली के चारों रास्तों पर शक्ति प्रदर्शन भी कर रही है ,इससे सरकार की नियत पर संदेह होना स्वाभाविक है .
पिछले दस दिनों में किसान आंदोलन के प्रति केंद्र सरकार के व्यवहार से एक बार तो जाहिर हो गयी है कि सरकार समस्या का हल तो निकालना चाहती है लेकिन बिना झुके ,जो एक नामुमकिन रास्ता है. सरकार को किसानों की मांग के अनुरूप झुकना तो पडेगा .सरकार का झुकना कोई अपमानजनक बात नहीं है यदि किसान चाहते हैं तो सरकार को अपने क़ानून बदलना चाहिए.सरकार जबरन किसानों का भला क्यों करना चाहती है. केंद्र को आखिर अपने कदम वापस लेने में दिक्क्त क्या है ?सरकार ने जो क़ानून जिस वर्ग के लिए बनाये हैं जब वही वर्ग कानूनों के खिलाफ खड़ा है तो ऐसे कानूनों को खारिज करने में कोई परेशानी नहीं होना चाहिए .
बातचीत में गतिरोध के कारण प्रति पल समस्या गंभीर हो रही है. दिल्ली के लोग ही नहीं पूरे देश के लोग इस आंदोलन के कारण हलकान हैं. सरकार फिर भी बातचीत को लंबा खींचने पर आमादा है .नए दौर की बातचीत के लिए केंद्र ने चार दिन का समय क्यों लिया है ये समझ से परे है. क्या इन चार दिनों में सरकार किसान आंदोलन से निबटने के लिए अपनी तैयारियों को नए सिरे से मजबूत करना चाहती है या जानबूझकर किसानों और देश के लोगों को सता रही है .किसान आंदोलन के साथ ही अब 8 दिसंबर को पूरा देश आंदोलित होने जा रहा है .कमोवेश ये स्थितियां अप्रिय और खतरनाक हैं .आशंका इस बात की भी है कि केंद्र सरकार एक बार फिर 1975 की तरह देश को आपातकाल की और धकेलना चाहती है .
विवादास्पद किसान कानूनों को लेकर केंद्र अब किसानों से सुझाव मांग रहा है.यदि यही सब कुछ क़ानून बनाने से पहले कर लिया गया होता तो आज किसानों के आंदोलन की नौबत ही न आती .दुर्भाय ये है कि केंद्र किसानों के आंदोलन को किसानों का आंदोलन मानने के लिए राजी नहीं है. केंद्र को लगता है कि इस किसान आंदोलन के पीछे कांग्रेस और अकालीदल समेत वे तमाम थके-हारे राजनितिक दल हैं जो मैदान में भाजपा का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं .चलिए इसे हकीकत मान भी लिया जाये तो भी ये भी एक तथ्य है किसान आंदोलन दस दिन बाद भी अनुशासित और एकजुट है .केंद्र के तमाम प्रयासों के बाद भी अभी तक किसान आंदोलन में दरार नहीं आयी है और किसान हिंसक नहीं हुए हैं .

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मुझे ये कहते हुए दुःख होता है कि वार्ताओं के इतने दौर तो अंग्रेजों के समय भी नहीं हुए .गोलमेज सम्मेलन भी तीन से आगे नहीं गए लेकिन यहां तो केंद्र किसानों के साथ पांच बार गोलमेज पर बैठ चुकी है लेकिन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाई है .केंद्र एक और किसानों के साथ होने की बात दोहरा रहा है दूसरी और किसानों के साथ कोई निर्णायक वार्ता करने को राजी नहीं है इससे किसानों में क्षोभ बढ़ रहा है .मुझे आशंका ये भी है कि यदि किसानों के सब्र का बाँध टूटा तो देश में स्थितियां एक बार फिर से अराजक हो सकतीं हैं .अब गेंद किसानों के नहीं केंद्र के पाले में है ,निर्णय किसानों को नहीं ,केंद्र को करना है .
पिछले छह साल में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने अनेक सफल और असफल प्रयोग किये हैं, किसानों के लिए बहुमत के आधार पर बांये गए क़ानून भी इसी शृंखला में देश के सामने आये हैं,इनकी सफलता और असफलता से केंद्र की प्रतिष्ठा पर कोई आंच आने वाली नहीं है. केंद्र वादा करके भी कालाधन विदेशों से वापस नहीं ला पायी,नोटबंदी के बाद भी ऐसा नहीं हुआ.केंद्र ने तमाम नवरत्नों को ठिकाने लगा दिया ,रेलें ,हवाई अड्डे निजी हाथों में सौंप दिए तब कुछ नहीं हुआ तो अब किसानों के कहने पर उनके लिए बनाये गए क़ानून वापस लेने से कौन सा पहाड़ टूटने वाला है ?
केंद्र के पास ये अंतिम अवसर है कि वो किसानों के आंदोलन का सम्मान करे अन्यथा सरकार के हिस्से में जो अपयश आएगा उसका बोझ अवतारी नेतृत्व भी नहीं उठा पायेगा,क्योंकि अंतत:जनता ही जनार्दन होती है ,नेता नहीं .ये पहले भी अनेक अवसरों पर प्रमाणित हो चुका है और आगे भी 9 दिसंबर के बाद प्रमाणित होगा .लोकतंत्र की रक्षा और जनादेश के सम्मान के लिए झुकना ही श्रेयस्कर स्थिति होती है .अंग्रेज भी झुके,इंदिरा गाँधी भी झुकीं और मोदी जी को भी झुकना ही चाहिए .न झुकें ये उनकी मर्जी है .देश तो ऐसी अकड़ के पक्ष में नहीं है .
@ राकेश अचल

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