मोदी है तो क्यों मुमकिन नहीं है ये हिंसा रोकना ?


@राकेश अचल। देश में नए भक्ति आंदोलन में एक नारा बड़ा प्रचलित हुआ था -मोदी है तो मुमकिन है ‘. इस नारे ने मोदी का मान भी बढ़ाया था और हँसी भी खूब उड़ाई थी .मोदी यानि देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रमोदी जी. उनके भक्तों का मानना है कि युवावतार मोदी जी के लिए सब कुछ मुमकिन है. वे देश से कांग्रेस का सफाया कर सकते हैं. जम्मू-कश्मीर के टुकड़े कर सकते हैं, वहां से धारा 370 हटा सकते हैं. तीन तलाक क़ानून बना सकते हैं और राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद हल कर सकते हैं .यानि मोदी हैं तो हर चीज मुमकिन है.
बीते रोज छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा में 22 जवानों की नृशंस हत्या के बाद मेरे मन में यही नारा एक बार फिर गूंजा कि यदि मोदी हैं तो देश से नक्सलवाद की समस्या समाप्त क्यों नहीं हो रही ? आखिर मोदी जी को सत्ता में रहते हुए ये सातवां साल चल रहा है .इन्हीं सात सालों में मोदी जी ने वो सब किया है जो मैंने ऊपर आपको बताया. लेकिन नक्सली हिंसा को रोक पाने में मोदी कामयाब नहीं हो पा रहे,भले ही नक्सली हिंसा से प्रभावित राज्यों में मोदी का जप करने वाली सरकार हो या न हो .

बीजापुर नक्सली हमले के बाद सर्चिंग करते हुए जवान


देश जब रंगपंचमी मना रहा था उसी समय छत्तीसगढ़ के बीजापुर में शनिवार को माओवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में 22 पुलिस जवानों की हत्या कर दी गयी . इस नृशंस हत्याकांड के फौरन बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मुठभेड़ के बाद मौजूदा हालात की दिल्ली में वरिष्ठ अधिकारियों के साथ समीक्षा की है. इस बैठक में केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला, इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक अरविंद कुमार और गृह मंत्रालय के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने हिस्सा लिया.हमेशा की तरह केंद्र की और से कहा गया कि जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा ,लेकिन दुःख की बात है की ये आश्वासन लगातार खोखले साबित होते आये हैं .
मैंने तो जबसे होश शाला है तब से ही देश के अनेक राज्यों में नक्सली हिंसा के किस्से सुनते,पढ़ते और देखता आ रहा हूँ. देश में कांग्रेस का पांच दशक से ज्यादा अखंड शासन भी नक्सली हिंसा का माकूल जबाब नहीं दे पाया ,समस्या का खात्मा करना तो दूर की बात है .देश में बाक़ी समय गठबंधन की मजबूत और कमजोर सरकारें भी बनीं,लेकिन वे भी इस समस्या को समाप्त करने में नाकाम रहीं. यही नाकामी देश के सबसे मजबूत और अवतारी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हिस्से में भी दर्ज की जा चुकी है.
मुझे याद है कि दो साल पहले नक्सलियों ने अपनी और से प्रेसनोट जारी कर दावा किया था की बीते दो दशक में यानि 2001 से अब तक नक्सली हिंसा में करीब तीन हजार सुरक्षा कर्मी मारे जा चुके हैं .और इतने ही घायल भी हुए हैं जबकि हमारे सुरक्षा बल इन दो दशकों में सिर्फ तीन सौ नक्सली ही ढेर कर पाए.
नक्सली व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं या सत्ता के खिलाफ अब तक तय नहीं हुआ है. नक्सलियों ने बीते दो दशक में 222 राजनितिक लोगों की हत्या की है. बेरहम नक्सली मुखबिरी के आरोप में इसी अवधि में दो हजार लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं लेकिन सर्वशक्तिमान होते हुए भी कोई भी सरकार नक्सलियों से दंडकारण्य को निर्मूल नहीं कर पा रही .जाहिर है कि ये समस्या मौजूदा सरकार के एजेंडे पर है ही नहीं अन्यथा ये समस्या जम्मू-कश्मीर की समस्या से भी ज्यादा भयावह है.
आपको याद होगा की 2012 में नक्सलियों ने एक आईएएस अधिकारी का अपहरण तक कर लिया था. शयद वे सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पाल में थे,उन्हें सरकार की ताकत नहीं बल्कि एक पूर्व आईएएस ब्रम्हदत्त शर्मा रिहा कराकर लाये थे. शर्मा जी गांधीवादी कार्यकर्ता भी थे और वे हमारे ग्वालियर शहर के ही थे .नक्सलियों ने पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत छग कांग्रेस के दो दर्जन से अधिक नेताओं को गोलियों से भून दिया था लेकिन आजतक कोई भी सरकार नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ पायी.
देश के कम से कम 7 राज्य नक्सली हिंसा की चपेट में हैं .केंद्र सरकार ने इन सातों राज्यों के साथ मिलकर भी नक्सलियों के खिलाफ अभियान चलाया किन्तु कामयाबी नहीं मिली..नक्सली हिंसा में पिस्ता आम आदमी है. चाहे फिर उन्हें पुलिस की गोली से मरना पड़े या किसी नक्सली की गोली से .नक्सली हिंसा का इतिहास आधी सदी से भी अधिक पुराना है. भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई जिससे इस आंदोलन को इसका नाम मिला.हालांकि इस विद्रोह को तो पुलिस ने कुचल दिया लेकिन उसके बाद के दशकों में मध्य और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में नक्सली गुटों का प्रभाव बढ़ा है. इनमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं.
आपको याद हो या न हो किन्तु मुझे याद है कि वर्ष 2009 में कोलकाता से महज़ 250 किलोमीटर दूर लालगढ़ ज़िले पर नक्सलियों ने कब्ज़ा कर लिया था जो कई महीनों तक चला. माओवादियों ने लालगढ़ को भारत का पहला “स्वतंत्र इलाका” घोषित किया लेकिन आखिरकार सुरक्षा बल इस विद्रोह को दबाने में कामयाब रहे.नक्सली हिंसा की एक और बड़ी घटना में साल 2010 में नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में सुरक्षाबलों पर घात लगा कर हमला किया जिसमें 76 सुरक्षाकर्मी मारे गए.
इससे पहले 2007 में छत्तीसगढ़ में ही पुलिस के एक नाके पर नक्सली हमले में 55 पुलिसकर्मी मारे गए थे.
पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश की मौजूदा सरकार ने नक्सलियों के सफाये में अपनी नाकामी छिपाने के लिए एक नया शब्द ‘शहरी नक्सली ‘ और गढ़ लिया. इस नए शब्द के साथ सरकार जंगलों के बजाय शहरों में रहने वाले अपने विरोधियों को पकड़कर जेलों में ठूँसती रहती है,भले ही वे नौजवान हों या अस्सी वर्ष के बुद्धिजीवी. लेकिन कुल मिलकर सवाल यही है कि मोदी जी हैं तो नक्सल समस्या का हल मुमकिन क्यों नहीं हो पा रहा है ? ये समस्या लगातार लोकतंत्र के लिए चुनौतियां पैदा करने वाली रही है .क्या करण है कि सरकार नक्सली समस्या को जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने या राम मंदिर बनाने जैसा आवश्यक नहीं समझती .
तमाम असहमतियों के बावजूद मेरी हार्दिक इच्छा है कि मोदी जी के रहते हुए नक्सली हिंसा का भी स्थाई निदान निकले.मोदी जी जितनी मेहनत बंगाल को जीतने के लिए करते हैं उतनी ही मेहनत यदि नक्सली हिंसा को समूल समाप्त करने के लिए करें तो मुमकिन है कि हमें रोज-रोज अपने अरण्य में बहती खून की नदियां न देखना पड़ें .
@ राकेश अचल

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लेखक – ग्वालियर के जानेमाने कवि और साहित्यकार है।

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